मैं स्वरूप पाती मृत्तिका...
मृत्तिका
- नरेश मेहता
मैं तो मात्र मृत्तिका हूँ -
जब तुम
मुझे पैरों से रौंदते हो
तथा हल के फाल से विदीर्ण करते हो
तब मैं -
धन - धान्य बनकर मातृरूपा हो जाती हूँ |
जब तुम
मुझे हाथों से स्पर्श करते हो
तथा चाक पर चढाकर घुमाने लगते हो
तब मैं -
कुम्भ और कलश बनकर
जल लाती तुम्हारी अंतरंग प्रिया हो जाती हूँ |
जब तुम
मुझे मेले में मेरे खिलौने रूप पर
आकर्षित होकर मचलने लगते हो
तब मैं -
तुम्हारें शिशु हाथों में पहुंच प्रजारुपा हो जाती हूँ |
पर जब भी तुम
अपने पुरुषार्थ-पराजित स्वत्व से मुझे पुकारते हो
तब मैं -
अपने ग्राम्य-देवत्व के साथ
चिन्मयी शक्ति हो जाती हूँ |
प्रतिमा बन तुम्हारी आराध्या हो जाती हूँ |
विश्वास करों
यह सबसे बड़ा देवत्व हैं, कि -
तुम पुरुषार्थ करते मनुष्य हो
और मैं स्वरूप पाती मृत्तिका
- नरेश मेहता
मैं तो मात्र मृत्तिका हूँ -
जब तुम
मुझे पैरों से रौंदते हो
तथा हल के फाल से विदीर्ण करते हो
तब मैं -
धन - धान्य बनकर मातृरूपा हो जाती हूँ |
जब तुम
मुझे हाथों से स्पर्श करते हो
तथा चाक पर चढाकर घुमाने लगते हो
तब मैं -
कुम्भ और कलश बनकर
जल लाती तुम्हारी अंतरंग प्रिया हो जाती हूँ |
जब तुम
मुझे मेले में मेरे खिलौने रूप पर
आकर्षित होकर मचलने लगते हो
तब मैं -
तुम्हारें शिशु हाथों में पहुंच प्रजारुपा हो जाती हूँ |
पर जब भी तुम
अपने पुरुषार्थ-पराजित स्वत्व से मुझे पुकारते हो
तब मैं -
अपने ग्राम्य-देवत्व के साथ
चिन्मयी शक्ति हो जाती हूँ |
प्रतिमा बन तुम्हारी आराध्या हो जाती हूँ |
विश्वास करों
यह सबसे बड़ा देवत्व हैं, कि -
तुम पुरुषार्थ करते मनुष्य हो
और मैं स्वरूप पाती मृत्तिका
Labels: Perception, Poetry, Responsibility
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